What is Karma theory ? जीव क्या है? आत्मा परमात्मा क्या है? मानव जीवन का ध्येय क्या है? कुछ प्रश्न हैं जिन पर कभी-कभी सोच जाती है| इन प्रश्नों के उत्तर को खोजते हुए मुझे मुण्डकोपनिषद में एक सन्दर्भ मिला जो मैं आज सब के साथ बाँट रहा हूँ| मुण्डक उपनिषद् के तृतीय मुण्डक के प्रथम खंड के तीन श्लोक उद्धृत हैं जिसमे समान वृक्ष पर रहने वाले दो पक्षियों – एक जीव (मनुष्य) और एक परमात्मा – का वर्णन है:
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया, समानं वृक्षं परिषस्वजाते | तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्य- नश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ||१ ||
एक वृक्ष पर सुपर्ण अर्थात सुन्दर पर्ण वाले तथा सयुज अर्थात सदा साथ-साथ रहने वाले दो पक्षी वृक्ष का आश्रय करके रहते हैं | उनमे से एक तो स्वादिष्ट तथा मधुर पिप्पल (कर्मफल) का भोग करता है और दूसरा भोग ना करके केवल देखता रहता है |
अर्थात – लिंगोपाधिरूप वृक्ष (शरीर) को आश्रित करने वाला क्षेत्रज्ञ (अहम् – Ego) ये पक्षी पिप्पल यानी अपने कर्म से प्राप्त होनेवाले सुख, दुखःरुपी फल, जो अनेक प्रकार के अनुभव रूप से स्वाद से स्वादिष्ट है, खाता – भक्षण करता है यानी अविवेकवश भोगता है | किन्तु अन्य – दूसरा जो नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्तस्वरूप सर्वज्ञ मायोपाधिक ईश्वर है उसे ग्रहण ना करता हुआ नहीं भोगता | वह साक्षित्वरूप सत्ता मात्र से भोक्ता और भोग्य दोनों का प्रेरक ही है |
समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्यमानः |जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोकः ||२ ||
सामान वृक्ष पर रहने वाला जीव अपने दीन स्वभाव के कारण शोक में निमग्न संताप करता रहता है | देहात्म भाव को प्राप्त हुआ ये भोक्ता अविद्या, कामना, कर्मफल और रागादी के भारी भार से आक्रांत होकर “मैं यह हूँ” “मैं अमुक का पुत्र हूँ, पुत्री हूँ” “सुखी हूँ” “दुखी हूँ” “गुणवान हूँ” “रूपवान हूँ” इस प्रकार की भावनाओं से भरा, “इस देह से भिन्न और कुछ नहीं है” ऐसी समझ से उत्पन्न होता, अपने सम्बन्धियों से मिलता, बिछुड़ता रहता है | दीनभाव में (अनीशा) “मैं असमर्थ हूँ” “मेरा पुत्र मर गया” या “मेरा कोई नहीं रहा” आदि भावों से युक्त, अनेकों अनर्थमय प्रकारों से मोहित आतंरिक चिंता को प्राप्त हुआ वह शोक यानी संताप करता है | अनेकों जन्मों के अपने शुद्ध धर्म एवं पूर्व पुण्यों के संचय के कारण किसी परम गुरु करूणामय गुरु के द्वारा योगमार्ग दिखलाये जाने पर अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य और सर्वत्याग तथा समाहितचित्त होकर ध्यान करने पर ईश्वर को देखता है, उस समय शोकरहित हो जाता है |
यदा पश्यः पश्यते रुक्मवर्णं कर्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम् |तदा विद्वान्पुण्यपापे विधूय निरञ्जनः परमं साम्यमुपैति ||३ ||
जिस समय दृष्टा सुवर्णवर्ण (स्वर्ण के समान प्रकाश), रुक्मवर्ण (स्वयं प्रकाश स्वरुप), ब्रह्मयोनी (जो ब्रह्म है और योनी भी है) और ब्रह्मा के भी उत्पत्ति स्थान उस जगत्कर्ता ईश्वर पुरुष को देखता है उस समय वह विद्वान् पाप-पुण्य दोनों का त्याग कर (अपने बंधनभूत कर्मों को समूल त्याग कर) निरञ्जन (निर्लेप – क्लेशरहित) निर्मल हो अत्यंत समता को प्राप्त होता है |
ये हुआ एक शब्दार्थ | Karma Theory पर इस उद्धरण का बड़ा गूढ़ रहस्य है, जिसे ज़रा सरलता से समझते हैं |
मानव जीवन व शरीर की एक विशाल वृक्ष से तुलना की गयी है | इस वृक्ष पर अविद्या, काम, कर्म और वासना के आश्रयभूत होकर, लिंग-देह-रूप उपाधि वाला जीव और साथ में ईश्वर रूप, दो सुपर्ण पक्षी निवास करते हैं |
वृक्ष को पलने बढ़ने पनपने में शक्ति की आवश्यकता रहती है – तो इस वृक्ष की जड़ें मानव जीवन के अनंत संचित कर्मों की धरती में अगाध गहराई तक गयी हैं और इन्ही कर्मों के धरती की अनंत गहराई से आने वाला कर्म फल रस, इस वृक्ष का पालन पोषण करता है | कई-कई जन्मों के पूर्व कर्मों के फलस्वरूप इस वृक्ष का मजबूत तना या धड बना है जो इस वृक्ष को शक्ति से थामे खड़ा है | इस जीवन वृक्ष की शाखाएं व्यक्तिगत रुझान, प्रवृत्ति एवं प्रकृति के अनुसार चारों तरफ फैली हैं |
जैसे-जैसे ये जन्म प्रगति करता है, इस जन्म के संस्कार, विकार, अनुभव एवं अनुभूति के आधारभूत ये शाखाएं असंख्य टहनियां, पल्लव, पत्ते, फूल एवं फल आदि उत्पन्न करती हैं | ये सब यथा समय उत्पन्न होती है, परिपक्व होती हैं और वृक्ष की प्रगति में अपनी भूमिका निभाती हुई गिर जाती है ताकि और नयी उत्पत्ति होती रहे|
कुछ इसी तरह मानव जीवन में नए अनुभव, नए विकार एवं अनुभूतियाँ नए संस्कारों को जन्म देती हैं, कुछ समय तक ये संस्कार साथ चलते हैं, फिर छूट जाते हैं | पर जब ये छूटते हैं तो पूरी तरह समाप्त नहीं होते, अपितु अपने अनुभव की छाप छोड़ देते हैं | वृक्ष में जिस तरह फूल धीरे-धीरे फलों में बदलते हैं, फल वृक्ष की प्रगति में साथ देते हुए, परिपक्व होने के बाद गिर जाते हैं, उसी प्रकार जीवन में अच्छे, बुरे, निष्पक्ष या उदासीन कर्म जीवन वृक्ष की प्रगति करता हुआ अनुभवों से उत्पन्न संस्कारों को दोहराता हुआ, उन फलों को भोगता हुआ, फिर छोड़ता हुआ अपने संचित कर्मों में घटोत्तरी बढ़ोत्तरी करता हुआ आगे बढ़ता जाता है |
इस वृक्ष के दोनों पक्षियों में एक पक्षी वृक्ष के ऊपर आसीन है, शांतचित्त, आत्मलीन, आत्मनिर्भर, ये ना तो वृक्ष पर निर्भर है और ना ही आश्रित | ये पक्षी सदा आनंदमय और प्रसन्नचित्त अवस्था में बैठा है | ये पक्षी अपने अस्तित्व, प्रसन्नता और ज्ञान के लिए किसी चीज पर निर्भर नहीं है | इसका आत्मप्रकाश वृक्ष को अपनी दिव्य आभा से प्रकाशमान कर रहा है | वृक्ष के शिखर स्थित ये गौरान्वित पक्षी अपने आसन को कभी नहीं छोड़ता क्योंकि ये अपने आप में पूर्ण है, कामनाओं, इच्छाओं और जरूरतों से मुक्त|
इसी वृक्ष के तने पर दूसरा पक्षी है – ऊपर स्थित पक्षी की तरह | टहनी से टहनी फुदकता, इधर उधर कूदता ये दूसरा पक्षी सदैव गतिमान है, कोई स्थिर स्थान नहीं है इसके लिए | सदैव अधीर, चंचल और व्याकुल ये पक्षी नए-नए फलों के स्वाद के लिए पूरे पेड़ पर इधर से उधर फुदकता रहता है | हर क्षण ये नए फलों के रस के लिए, नए स्वाद व नए अनुभव के लिए भटकता है | मीठे फल मिल जाये तो एक पल की अस्थायी ख़ुशी व तृप्ति का अनुभव – फिर भूख – फिर नए फल की तलाश | कडवा फल मिल जाये तो आघात और विषाद |
उस विषाद में ये पक्षी इधर उधर शांति ढूंढता है और एक पल नज़र जाती है ऊपर बैठे आत्मलीन आत्म निर्भर दीप्तिमान पक्षी पर ! क्षणभंगुर आकर्षित होकर उस ऊपर स्थित पक्षी की आकांक्षा करता है, पास जाने का प्रयास करते हुए थोडा ऊपर उड़ता है, पर अगले क्षण भूल कर फिर किसे रसीले फल की तरफ रुख कर लेता है |
इस तरह ये अशांत पक्षी फलों के रसास्वादन करता हुआ, वृक्ष के चारों तरफ चक्कर काटता हुआ, अनजाने में और सूक्ष्म रूप से ऊपर स्थित पक्षी की तरफ धीरे-धीरे बढना शुरू करता है | और फलों को चखते-चखते जब एक तरह की तृप्ति और संतोष का अनुभव होता है तब वृक्ष के निरंतर चक्कर काटने में इस पक्षी को अनिच्छा होने लगता है |
कभी-कभी एक ही उड़ान में ये पक्षी ऊपर आसीन पक्षी तक पहुँच जाती है, पर बहुधा ऊपर पहुँचने की क्रिया धीरे-धीरे, उत्तरोत्तर होती है, अंततः निचली पक्षी उपरोक्त पक्षी के काफी समीप पहुंच जाती है, और उसका व्यक्तित्व विशिष्ट रूप से ऊपरी पक्षी के प्रकाश व आभा से प्रतिबिंबित हो उठता है| आखिरकार निचली पक्षी पूरी तरह ऊपरी पक्षी में लीन होकर अपना अस्तित्व खो देती है | तब उसे समझ आता है की मैं तो सिर्फ एक परछाई थी ऊपरी पक्षी की ! क्या खेल है माया का ! शाश्वत सत्य तो ये ऊपरी पक्षी है – जिसने इस जीवन वृक्ष की वृद्धि व विकास में कोई सक्रिय भाग नहीं लिया | साक्षी भाव से निराकार होकर देखती रही, उस जीवात्मा को जो अपने ही बुने जालों में फंसा रहा और जब ये जाल टूटे तो आत्म साक्षात्कार हुआ |
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